शाक्यमुनि बुद्ध का जीवन

Shakyamuni Buddha Ka Jivan

छठी शताब्दी ईसा पूर्व के नास्तिक सम्प्रदाय के आचार्यों में शाक्यमुनि बुद्ध का नाम सर्वप्रमुख है | वें महावीर स्वामी के समकालीन थें | शाक्यमुनि बुद्ध या गौतम बुद्ध ने जिस धर्म का प्रवर्तन किया वह कालान्तर में एक विश्वधर्म बना | बौद्ध धर्म भारतीय विचारधारा के सर्वाधिक विकसित रूपों में से एक है | वर्तमान समय में बौद्ध धर्म के अनुयायी एशिया महाद्वीप के सुदूरवर्ती भागों में फैले हुए है | एम. हिरियन्ना लिखते है कि “संस्कृति का वाहक पश्चिम हेतु जितना ईसाई धर्म रहा, पूर्व के एक बड़े भाग के लिए बौद्ध धर्म उससे कम नही रहा |”

ज्ञान-प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ने अपना सारा जीवन मानव-जीवन के उत्थान को समर्पित कर दिया | मानव-जाति के आध्यात्मिक इतिहास में बुद्ध सबसे महान व्यक्तित्व में से एक थें | उनका सम्पूर्ण जीवन मानव जाति को सर्वाधिक प्रेरणा देने वालों में से एक है | प्रोफेसर ए. एल. बाशम शाक्यमुनि बुद्ध के बारे में लिखते है कि “यदि संसार के ऊपर उनके मरणोत्तर प्रभावों के आधार पर भी उनका मूल्यांकन किया जाये तो निश्चय ही वें भारत में जन्म लेने वाले महानतम व्यक्ति थें |”

महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था और उनका सम्बन्ध गौतम अथवा गोतम के प्राचीन वंश से था | गौतम गोत्र के होने के कारण वे गौतम भी कहलाते है | बुद्ध की उपाधि उन्हें बाद में मिली और यह उस बोध का सूचक है जिसे प्राप्त करके उन्हें तत्व-दृष्टि मिली | उन्हें ‘तथागत’ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘सत्य है ज्ञान जिसका’ |

शाक्यमुनि बुद्ध का जीवन

बौद्ध धर्म से संबंद्ध पालि ग्रन्थों में शाक्यमुनि बुद्ध की जीवन सम्बन्धी कथाओं में अनेक चमत्कारपूर्ण और अतिशयोक्तिपूर्ण उपाख्यान सम्मिलित है | लेकिन मुक्तिदूत के इस लेख में हम शाक्यमुनि बुद्ध के जीवन की इतिहासपरक मुख्य घटनाओं की ही संक्षिप्त चर्चा करेंगे |

परम्परा के आधार पर माना जाता है कि शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल तराई में अवस्थित लुम्बनी वन (आधुनिक रुमिंदेई या रुमिंदेह) में हुआ था | कपिलवस्तु की पहचान उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में पिपरहवा से की जाती है | माना जाता है कि इनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्यगण के प्रधान थें | इनकी माता का नाम मायादेवी था, जोकि कोलिय गणराज्य की कन्या थी | ऐसा कहा जाता है कि गणराज्य में जन्म लेने के कारण ही गौतम बुद्ध में कुछ समतावादी भावना आई थी |

बौद्ध पालि ग्रन्थों में शाक्यमुनि बुद्ध के जन्म का चमत्कारिक वर्णन इस प्रकार किया गया है -” शाक्यों के राजा शुद्धोदन की पटरानी महामाया ने एक रात को स्वप्न देखा कि वह एक हिमालय स्थित स्वर्गीय सरोवर अनवतप्त को ले जाई गयी, वहां जगत की चार दिशाओं के स्वर्गीय दिगधिपतियों के साथ उन्होंने स्नान किया | एक विशाल हाथी अपनी सूँड मे एक कमल फूल लेकर उनके निकट आया और उनकी कुक्षि में प्रविष्ट हो गया | दूसरे दिन विद्वान जनों ने उन्हें, उनकी व्याख्या स्पष्ट की | रानी के गर्भ में एक आश्चर्यजनक पुत्र का आगमन हुआ जो या तो सार्वभौम महाराजाधिराज होगा या एक महान उपदेशक | शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के समीप शाल वृक्षों की एक कुंज में लुम्बिनी में पुत्र का जन्म हुआ जब रानी पिता के गृह प्रसवकाल हेतु जा रही थी | जन्म होते ही शिशु सीधा खड़ा हो गया, सात कदम आगे बढ़ा और बोला -‘यह मेरा अंतिम जन्म है, इसके पश्चात अब मुझे कोई जन्म ग्रहण नही करना है’ |”

सिद्धार्थ के जन्म के सातवें दिन माता मायादेवी की मृत्यु हो गयी और इनका पालन-पालन विमाता (मौसी) महाप्रजापति गौतमी ने किया था | ऐसा कहा जाता है कि बालक सिद्धार्थ को देखकर कालदेव और ब्राह्मण कौंडिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो चक्रवर्ती राजा होंगा अथवा संन्यासी |

यद्यपि सिद्धार्थ का पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य व वैभवशाली वातावरण में हुआ | उन्हें एक क्षत्रिय राजकुमार को प्रदान की जाने वाली शिक्षाएं जैसे युद्ध-प्रणाली, शास्त्रों का ज्ञान आदि प्रदान की गयी थी | लेकिन बचपन से ही इनका ध्यान आध्यात्मिक चिन्तन की ओर था | वे प्रायः जम्बू वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठे पाए जाते थें |

सिद्धार्थ को सांसारिक जीवन से विरक्त होते देखकर पिता शुद्धोदन को अत्यधिक चिंता हुई और उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को सांसारिक विषयभोगों में फंसाने की बहुत कोशिश की | इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की आयु में ही सिद्धार्थ का विवाह शाक्यकुल की एक अत्यंत सुंदर कन्या के साथ कर दिया | इस शाक्य कन्या का नाम उत्तरकालीन बौद्ध ग्रन्थों में बिम्बा, यशोधरा, गोपा, भद्कच्छना आदि मिलता है | कालान्तर में इस कन्या का नाम यशोधरा को प्रचलित हुआ |

आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण सिद्धार्थ का मन दाम्पत्य-जीवन में नही रम रहा था | इनके पिता ने इन्हे विलासता की सभी सामग्रियां प्रदान की | तीनों ऋतुओं में आराम के लिए अलग-अलग आवास बनवा कर दिये और पूरा प्रयत्न किया कि सिद्धार्थ को सांसारिक दुःखों के दर्शन न हो पाए |

यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम राहुल पड़ा | पुत्र प्राप्ति से सिद्धार्थ खुश नही थें और उसे मोह-बंधन मानकर राहु कहा और इस प्रकार उस बालक का नाम राहुल पड़ा |

जैसे-जैसे सिद्धार्थ की उम्र बढ़ती गयी उनका मन सांसारिक विषयभोगों से दूर भागता गया | बौद्ध ग्रन्थों में उल्लिखित जीवन सम्बन्धी चार दृश्य विश्व प्रसिद्ध है, जिन्हें देखकर सिद्धार्थ में वैराग्य की भावना अत्यंत प्रबल हो उठी |

अपने स्वामिभक्त सारथी चाण (छन्ना) के साथ विहार के लिए जाते हुए सिद्धार्थ ने पहले जर्जर शरीर वाला एक वृद्ध व्यक्ति, फिर एक रोगग्रस्त व्यक्ति और एक मृत व्यक्ति को देखा | चाण (छन्ना) ने उन्हें इन लोगों की दशा के बारे में समझाया | इन तीन दृश्यों को देखकर उनका मन द्रवित हो उठा | किन्तु चौथे दृश्य से सिद्धार्थ को आशा व संतोष की प्राप्ति हुई | यह चौथा दृश्य एक संन्यासी का था जो सांसारिक मोह-बंधन को त्यागकर प्रसन्न मुद्रा में भ्रमण कर रहा था | राजमहल के ऐश्वर्यपूर्ण-विलासतामय जीवन से बिल्कुल विपरीत दिखे ये दृश्य निश्चय ही सिद्धार्थ को गृह-त्याग की ओर ले जाने वाले थें |

यह सब जानने के बाद महाराज शुद्धोधन ने अपनी सावधानियों को दुगना कर दिया और अपने प्रिय पुत्र को सांसारिक वैभव में रमाने हेतु भांति-भांति प्रयत्न करने लगे | सिद्धार्थ सत्य रूप में मानो राजमहल में एक बंदी बना दिए गये | यद्यपि अब वे और अधिक ऐश्वर्य और आनन्द के बीच थें तदापि उनका मन उन चार दृश्यों को भूल नही पा रहा था और उनका मन व्याकुल हो रहा था |

एक रात सिद्धार्थ अनेक सुंदर गणिकाओं का मनोहर नृत्य देखते-देखते सो गये साथ ही गणिकाएँ भी सो गयी | अचानक राजकुमार की नींद भंग हुई तो निद्रावस्था में मग्न श्रृंगारविहीन गणिकाएँ उन्हें अत्यंत भयानक दिखी | कुछ लगभग निर्वस्त्र थी, कुछ के बाल बिखरे थें और कुछ भयानक तरह से खर्राटे ले रही थी | सिद्धार्थ को कुछ समय पूर्व जो दृश्य मनोहर लग रहा था वही दुष्य अब घृणित लग रहा था |

अब सिद्धार्थ में सांसारिक जीवन के त्याग की भावना दृढ़ हो चुकी थी | अंततः एक रात जब सभी निंद्रामग्न थें, उन्होंने अपने स्वामिभक्त सारथी चाण को जगाया जिसने उनके प्रिय अश्व कंथक को पृष्ठपर्यण किया | जब वे नगर से बहुत दूर पहुँच गये तो उन्होंने अपने राजसी वस्त्रो और सभी आभूषणों को उतारकर एक संन्यासी का वस्त्र धारण कर लिया |

गृह-त्याग के समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी | बौद्ध ग्रन्थों में सिद्धार्थ के गृह-त्याग की घटना को महाभिनिष्क्रमण की संज्ञा दी गयी है |

अब सिद्धार्थ ज्ञान की खोज के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगें | वैराग्य का तात्कालिक कारण यह था कि उन्होंने सम्पूर्ण मानव-जाति को दुःख से ग्रस्त देख लिया था | उस काल में वैराग्य का तात्पर्य तपोमय जीवन बिताना था | इसलिए वें कठिन तपस्या के लिए गुरु की खोज में लग गयें |

सर्वप्रथम वैशाली के निकट सांख्य दर्शन के आचार्य आलार कालाम के आश्रम में उन्होंने तप की क्रियाओं और उपनिषद-प्रतिपादित ब्रह्मविद्या की शिक्षा प्राप्त की |

लेकिन इन सबसे सिद्धार्थ को संतोष नही हुआ कि व्यक्ति आत्मसंयम व ज्ञान के द्वारा दुःख से निवृत्ति प्राप्त कर सकता है | यहाँ से अब वें रुद्रकरामपुत्त नामक एक दूसरे आचार्य के पास गये जिसका आश्रम राजगृह के निकट था | लेकिन यहाँ पर भी उनके मन को शांति नही मिली |

अब यहाँ से वें उरुवेला (बोधगया) पहुंचे, जहाँ उन्होंने पांच ब्राह्मण संन्यासियों के साथ घोर तपस्या आरम्भ की | कठोर तपस्या से उनका शरीर सूखकर नर-कंकाल की भांति दिखने लगा | लेकिन फिर भी उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नही हुई |

पालि ग्रन्थों में इस प्रकार वर्णन मिलता है -“उनका तप इतना कठिन हो गया था कि पाँच सन्यासियों ने उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया | 6 वर्षों तक उन्होंने अपने आपको इतने कष्ट दिए कि वे गतिमान अस्थिपंजरमात्र शेष रह गये | एक दिन वे तप व क्षुधा से क्षीण अचेत हो गये तो उनके साथियों ने उन्हें मृत मान लिया | लेकिन कुछ क्षणों के बाद उन्हें पुनः चेतना प्राप्त हुई | तब उन्हें यह अनुभव हुआ कि उनका तप और उनके उपवास निष्फल गये | अब उन्होंने दुबारा भोजन की भिक्षा मांगनी शुरू कर दी और उनकी काया ने दुबारा शक्ति अर्जित की |”

अंततः सिद्धार्थ ने इस कठिन तपस्या का त्याग करके सुजाता नामक कन्या के द्वारा भेट किया गया भोजन ग्रहण कर लिया | इससे इनके साथी पांच ब्राह्मण नाराज होकर इनका साथ छोड़कर सारनाथ चले गये |

सिद्धार्थ अब बोधगया आए | एक पीपल वृक्ष के नीचे इस दृढ़ निश्चय के साथ समाधि लगाई कि ज्ञान प्राप्ति तक समाधि भंग नही करेंगें |

अंततः 35 वर्ष की आयु में बोधगया में पीपल वृक्ष (बोधिवृक्ष-ज्ञान का वृक्ष) के नीचे उन्हें ज्ञान (बोधि) की प्राप्ति हुई और तब वे बुद्ध (प्रज्ञावान) कहलाने लगे | अब शाक्यमुनि बुद्ध को दुःख के स्वरुप तथा उसे दूर करने के उपाय के विषय में सच्चा ज्ञान प्राप्त हो गया था |

कुछ समय तक बुद्ध इस द्विविधा में रहे कि क्या उन्हें अपने इस ज्ञान की विश्व में घोषणा करनी चाहिए या नही क्योकि यह ज्ञान इतना कठिन और गूढ़ था कि यह अल्पजनों को ही समझ में आएगा | लेकिन क्योकि बुद्ध मानव-जाति के कल्याण के लिए प्रयासरत थें और उनके दुःखो अंत करना चाहते थें, अतः उन्होंने अपने शेष जीवन को एकांत में ध्यानमग्न होकर बिताना उचित नही समझा |

विश्व के कल्याण हेतु बुद्ध ने धर्म प्रचार करने का निर्णय किया | बुद्ध ने अपने ज्ञान का प्रथम प्रवचन वाराणसी के सारनाथ (ऋषिपत्तन) नामक स्थान में उन पाँच ब्राहमण साथियों को दिया जिन्होंने उरुवेला में उनका साथ छोड़ दिया था | बुद्ध के इस प्रथम उपदेश को बौद्ध साहित्यों में “धर्मचक्र-प्रवर्तन” (धम्मचक्कापवत्तन) कहा गया है | यह प्रथम उपदेश दुःख, दुःख के कारणों और उनके समाधान से सम्बन्धित था, जिसे “चार आर्य-सत्य” (चतारि आरिय सच्चानि) कहलाता है |

बुद्ध के इस उपदेश को सुनकर वें पाँचों ब्राह्मण इतने प्रभावित हुए कि अपनी तपश्चर्या का परित्याग करके उनके शिष्य बन गये | यही उन्होंने बौद्ध संघ की भी स्थापना की | प्रथम पांच ब्राह्मण शिष्यों के अलावा अनेक वैश्यों के साथ बनारस का यश नामक धनाढ्य श्रेष्ठी ने भी बुद्ध की शिष्यता स्वीकार कर संघ में शामिल हुआ | बुद्ध ने संघ के सदस्यों को देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया |

स्वयं बुद्ध ने भी इसके बाद आजीवन अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया | उन्होंने लम्बी-लम्बी यात्रा करके धर्म-संदेश को दूर-दूर तक पहुंचाया | वे एक दिन में 20 से 30 किलोमीटर तक पैदल चला करते थें | वे निरंतर 40 वर्षों तक मानव-कल्याण के लिए धर्म का उपदेश देते रहें, चिन्तन-मनन करते रहें | वे कभी एक स्थान पर ज्यादा समय तक नही रुकते थें, केवल वर्षा-ऋतु में ही वे एक स्थान पर टिकते थें |

गौतम बुद्ध के धर्म प्रचार को विरोधी धर्मानुयायियों ने रोकने का भी प्रयास किया | अनेक ब्राह्मणों सहित कई प्रतिद्वंद्वी कट्टरपंथियों से उनका मुकाबला हुआ, परन्तु वे शास्त्रार्थ में सभी को पराजित करते गये |

यह महत्वपूर्ण बात है कि बुद्ध के उपदेशों में अनेक तत्व ब्राह्मण धर्म के विरोधी थें लेकिन बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार इनके आरम्भिक अनुयायियों में ब्राह्मणों की संख्या अत्यधिक थी | अनेक राजाओं और राजपरिवारों के सदस्यों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया | बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार मगध के राजा बिम्बिसार, अजातशत्रु, कोशल के राजा प्रसेनजित आदि ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था | गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोदन, मौसी प्रजापति गौतमी, पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल ने भी बौद्ध धर्म को स्वीकार किया |

वैश्यों और व्यापारी वर्ग ने भी बुद्ध के धर्म को स्वीकार कर उदार रूप से दान देकर धर्म के प्रचार-प्रसार में विशेष भूमिका अदा की थी | बौद्ध धर्म में नवीन उत्पादन-व्यवस्था का प्रत्यक्ष व परोक्ष समर्थन किया गया था, जो वैश्यों और व्यापारी वर्ग की प्रगति में भी मददगार था |

उनके धर्मप्रचार की लोकप्रियता का एक कारण यह भी था कि वे ऊँची-नीच, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष आदि के बीच कभी कोई भेदभाव नही करते थें |

शाक्यमुनि बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम समय में मल्लों की राजधानी पावा पहुंचे यहाँ उन्होंने चुन्द नामक लुहार के घर उन्होंने ‘सूकरमद्दव’ खाया | कुछ लोग इसे सुअर का मांस मानते है, लेकिन यह तर्कसंगत नही लगता क्योकि बुद्ध जीवनभर अहिंसा का उपदेश देते रहे अतः किसी भी स्थिति में वे किसी जीव का मांस नही खा सकते थे | सम्भवतः यह कोई वनस्पति थी जी सुअर के मांद के पास पाई जाती थी जैसे कुकुरमुत्ता आदि |

इस भोजन के बाद उन्हें रक्तातिसार हो गया और उस वेदना को सहन करते हुए वे कुशीनगर पहुंचे | वही 80 वर्ष की आयु में 483 ईसा पूर्व में उनका महापरिनिर्वाण हुआ | इस स्थान की पहचान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक गाँव से की जाती है | महापरिनिर्वाण के पूर्व शाक्यमुनि बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “समस्त संघातिक वस्तुओं का विनाश होता है | अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करो |”