प्राचीन काल में भारतीय समाज ने श्रम विभाजन के लिए समाज को चार हिस्सों में बाँट दिया | प्रारम्भ में यह विभाजन स्वेच्छा से किया गया | लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार कोई भी व्यवसाय अपना सकते थें, बदल सकते थें और छोड़ सकते थें | लेकिन जैसे-जैसे समय बीता श्रम विभाजन को वर्ण विभाजन में बदल दिया गया | समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ण (वर्ग) में बाँट दिया गया | ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण ने समाज में अपना एकाधिकार स्थापित किया और सारी मूलभूत सुविधाओं पर कब्जा कर लिया | वैश्य वर्ग से धन (कर) प्राप्त करने के एवज में उन्हें थोड़ी बहुत सुविधाएं दें दी गयी | लेकिन इन विशेषाधिकार सम्पन्न लोगों ने शुद्र वर्ग से सारी सुविधाएँ छीन ली | उन्होंने शूद्रों से सभी मूलभूत अधिकार व सुविधाओं को छीन कर उनका जीवन पशुओं से भी हीन बना दिया |
शूद्रों से सारे मूलभूत अधिकार छीनने के लिए ब्राह्मण वर्ग ने धर्म का सबसे ज्यादा प्रयोग किया | वर्ण-व्यवस्था, जो बाद में जाति-व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी, के बुनियादी ढांचे को बनाएं रखने और शूद्रों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए शूद्रों को यह बात बहुत अच्छी तरह से समझाने का प्रयास किया गया कि ईश्वर ने ही वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया है और ईश्वर द्वारा निर्धारित वर्ण अथवा जाति के कर्तव्यों का पालन सही तरह से नही करने पर कुपरिणाम भोगने पड़ेंगे और जो शुद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण रूप से करते है उन्हें अगलें जन्म में उच्च वर्ग में जीवन मिलेगा | इसे दलित समाज का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ब्राह्मण वर्ग द्वारा अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए रचित धर्म-ग्रन्थों से दलित समाज आज भी खुद को अलग नही कर पाया है |
आधुनिक भारत में कुछ महान दलित लेखक हुए जिन्होंने अपने लेखों व कविताओं के माध्यम से दलित समाज को जगाने का प्रयास किया | मुक्तिदूत के इस लेख में आज हम दलित समाज पर लिखी कुछ महत्वपूर्ण कविताओं के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहें है जिन्होंने दलित समाज को नई दिशा दिखाने में अहम भूमिका निभाई है | दलित समाज को समर्पित कुछ विशिष्ट कविताओं के कुछ अंश को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है –
डॉ. भीमराव आंबेडकर की कलम से –
“एक सवर्ण हमेशा सवर्ण रहता है
एक अछूत हमेशा अछूत रहता है
एक ब्राह्मण हमेशा ब्राह्मण रहता है
एक भंगी हमेशा भंगी रहता है
वें ऊंचे रहते हैं, जो ऊँचे पैदा होते हैं
वें नीचे रहते है, जो नीचे पैदा होते है
भाग्य के कठोर नियम पर खड़ी है
यह व्यवस्था अपरिवर्तनीय
इसलिए व्यक्ति की योग्यता निरर्थक है
नीतिवान अछूत भी नीचा है, हीन सवर्ण से
धनवान अछूत भी नीचा है, धनहीन सवर्ण से “
स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ की कलम से –
“मनुजी तुमने वर्ण बना दिए चार
जा दिन तुमने वर्ण बनाएं, न्यारे रंग बनाएं क्यों ना ?
गोर ब्राह्मण लाल क्षत्री बनिया पीले बनाएं क्यों ना ?
शुद्र बनाते काले वर्ण के, पीछे को पैर लगाये क्यों ना ?
कैसे हो पहिचान पोप जी, दो अक्षर डलवाएं क्यों ना ?
पांच तत्व तो सबमें दिखें ज्यादा तत्व लगाये क्यों ना ?
वह सर्वज्ञ सर्व में व्यापक, उससे भी जुदे बनाएं क्यों ना ?
पांच तत्व गुण तीन बराबर बढ़कर तत्व लगायें क्यों ना ?
एक चूक बड़ी भारी पड़ गयी, न्यारेऊ मुल्क बसाये क्यों ना ?
लोहे के बर्तन पर पानी कंचन को दयौ डार |”
निसदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है
ऊपर न उठने देती नीचे गिरा रही है
हमको बिना मजूरी, बैलों के संग जोते
गाली व मार उस पर हमको दिया रही है
लेते बेगार खाना तक पेट भर न देते
बच्चे तड़पते भूखे, क्या जुल्म ढा रही है
ऐ हिन्दू कौम सुन ले, तेरा भला न होता
हम बेकसों को ‘हरिहर’ गर तू रुला रही है |”
बुद्ध संघ ‘प्रेमी’ की कलम से –
“शोषित ने ईश्वर जपा, छोड़ सभी आनन्द
ईश्वर उसको न मिला, मिला हमेशा दण्ड
मिला हमेशा दण्ड, सुना सम्बूक तपधारी
भगती है अपराधी, राम ने गर्दन उतारी
कह प्रेमी कविराय यह घटना सब ही जानें
वह करते हैं मने, फिर भी शोषित न माने |”
मलखान सिंह की कलम से –
“यकीन मानिये
इस आदमखोर गॉव में
मुझे डर लगता है
लगता है कि अभी बस अभी
ठकुराईसी मैड़ चीखेगी
मैं अधसौंच ही उठ आऊंगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी
मैं बेगार में पकड़ा जाऊंगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी सी भैंस
उधारी में खोल ले जायेगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खांसने के अपराध में
प्रधान मुश्क बांध मारेगा
लदवायेगा डकैती मेंसीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ायेगा |”
“सुनो वशिष्ठ
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं |
मत भूलो कि अब
मेहनतकश कन्धे
तुम्हारा बोझ ढोने को तैयार नही है
बिलकुल तैयार नही है
देखों
बंद किले से बाहर
झांककर तो देखो
बरफ मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है |”
“इस अपरिचित बस्ती में घूमते हुए
मेरे पांव थक गये हैं
अफ़सोस एक भी छत
सर ढकने को तैयार नही
हिन्दू दरवाजा खुलते ही कौम पूछता है
और नाक-भौं सिकोड़ गैर-सा सलूक करता है
नमाजी दरवाजा बुतपरस्त समझ
आंगन तक जाने वाले रास्तों पर कुण्डी चढ़ाता है
हर आला दरवाजे पर पहरा खड़ा है
और
मेरे खुद के लोगों पर न घर है, न मरघट |”
“धनुर्धर ! आज जान गये
ठीक ठीक जन गये हैं कि
कल निकम्मों के साथ
होने वाली आखिरी जंग में
तू हमारा सारथि नही होगा
और पूरा का पूरा जंग
हमें अपने ही बाजुओं से
जीतना होगा |”
ओम प्रकाश वाल्मीकि की कलम से –
“वर्णव्यवस्था को तुम कहते हो आदर्श
खुश हो जाते हो
साम्यवाद की हार पर
जब टूटता है रूस
तो तुम्हारा सीना 36 हो जाता है
क्योकि मार्क्सवादियों ने
छिनाल बना दिया है
तुम्हारी संस्कृति को
पूजते हो गाँधी के हत्यारे को
तोड़ते हो इबादतगाह झुण्ड बनाकर |”
“कभी सोचा है
गन्दे नाले के किनारे बसे
वर्ण व्यवस्था के मारे लोग
इस तरह क्यों जीते हैं ?
तुम पराये क्यों लगते हो उन्हें ?
कभी सोचा है ?”
“मेरी पीढ़ी ने अपने साइन पर
खोद लिया है संघर्ष
जहाँ आंसुओं का सैलाब नही
विद्रोह की चिंगारी फूटेगी
जलती झोपड़ी से उठते धुएं में
तनी मुट्ठियां तुम्हारे तहखानों में
न्य इतिहास रचेंगी |”
कंवल भारती की कलम से
“हम भूखे कुत्ते
टूट पड़ते तुम्हारे समाज पर
चिथड़े-चिथड़े कर देते
तुम्हारे जिस्म का मांस
यदि हमारी भी सूख जाती
मानवीय अनुभूतियां
धर्म से उठ जाता
विश्वास”
“मेरे घर में सोहर में
बनाये जाते हैं दिवाली पर सतिये
चिपकायी जाती है गोबर की एक लोई
उस लोई पर गाड़ी जाती हैं चौदह सीकें
शादी में छापे जाते है कपड़ो पर
हल्दी सने हांथों के पंजे
और कोई नही जानता
सदियों पहले हम बौद्ध थें
और ये सतिये प्रतीक हैं बुद्ध के चार आर्य सत्यों के
लोई और उस पर लगी सीकें
परिचय देती हैं धर्म चक्र का
जिसे बुद्ध ने प्रवर्तक किया था
बहुजनों के हित, सुख और कल्याण के लिए
हल्दी में छपा पंजा शिक्षा देता है पंचशील की |”
सी.बी. भारती की कलम से –
“पुरुष से मर्यादा पुरुषोत्तम हो गये राम
शबरी की जूठन कहा कर
और हम पले
जूठन पर ही आजन्म
मगर हम अछूत हो गये ?
यह कैसा तिलिस्म
कैसा भेदभाव यह
इस धरती के भगवानों का ?”
ईशकुमार गंगानिया की कलम से
“हे दलित तेरे लिए यह हिन्दुत्व
एक मरीचिका के अलावा कुछ भी नही है
इसका काम है तुझे भ्रमित करना
शोषण कर सर्वस्व छीनना”
मोहनदास नैमिशराय की कलम से –
“ईश्वर की मौत
उस पल होती है
जब मेरे भीतर उभरता है सवाल
ईश्वर का जन्म
किस मां की कोख से हुआ था ?
ईश्वर का बाप कौन ?”
महात्मा ज्योतिबा फुले की कलम से
“मनु जलकर खाक हो गया, जब अंग्रेज आया
ज्ञान रुपी मां ने हमको दूध पिलाया
अब तो तुम भी पीछे न रहो
जलाकर खाक कर डॉ मनुवाद को
हम शिक्षा पाते ही पाएंगे वह सुख
पढ़ लो मेरा लेख, ज्योति कहे |”
मद्दूरी नगेश बाबू की कलम से –
“किसी को मां दूध पिलाते हुए याद आती है
लोरी गाते हुए याद आती है
मुझे मां खेतों में काम करते हुए
या टोकरी ढोते हुए याद आती है |”
एन्डलूरी सुधाकर की कलम से –
“इस देश में
इस देह के साथ जीना भयानक है
इन चाण्डाल देहों के लिए
एक चाण्डाल देश चाहिए
ताकि कम से कम सर के बालों को
बचाया जा सके |”