जैन दर्शन और महावीर स्वामी का इतिहास

Jain Darshan Aur Mahavir Swami Ka Itihas

मुक्तिदूत की जैन दर्शन केटेगरी में आज हम ‘जैन दर्शन और महावीर स्वामी का इतिहास’ (Jain Darshan Aur Mahavir Swami Ka Itihas) History of Jain Philosophy and Mahavir Swami पर चर्चा करेंगे : ई.पू. छठी शताब्दी में वैदिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरुप दो धार्मिक क्रांतियों का जन्म हुआ, जिसका नेतृत्व महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी ने किया था | महावीर स्वामी गौतम बुद्ध के समकालीन थें और आयु में उनसे काफी बड़े थें | बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन दोनों ही नास्तिक दर्शन है, क्योकि ये वेदों की प्रमाणिकता में विश्वास नही करते हैं | जैन धर्म ऐतिहासिक दृष्टि से बौद्ध धर्म से प्राचीन है | 

यद्यपि महावीर स्वामी जैन धर्म के प्रवर्तक नही है, तथापि जैन धर्म व दर्शन के प्रचार-प्रसार का श्रेय उन्ही को जाता है | जैन धर्म-दर्शन मुख्यतः महावीर स्वामी के उपदेशों के उपदेशों पर ही आधारित है |

जैन शब्द ‘जिन’ शब्द से बना है | जिन शब्द ‘जि’ से बना है, जिसका अर्थ ‘विजय’ होता है | अर्थात् जिसने अपने मनोवेगों का सफलतापूर्वक साथ दमन करके अपने को वश में कर लिया हो | सभी 24 तीर्थंकरों को ‘जिन’ की संज्ञा से विभूषित करा जाता है | ‘जिन’ के अनुयायी जैन कहलाते है |

जैन अपने धर्म प्रचारक सिद्धों को तीर्थंकर कहते है और उनके वचनों को प्रमाण मानते है | तीर्थंकर उन महापुरुषों को कहा जाता है जो मुक्त है | तीर्थंकरों ने अपने प्रयासों के द्वारा बंधन को त्यागकर मोक्ष (केवल्य) को प्राप्त किया और प्रत्येक व्यक्ति इनके द्वारा दिखाए गये मार्ग पर चलकर बंधन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है |  

जैन धर्म-दर्शन एक प्रागैतिहासिक विचारधारा है और इनके तीर्थंकरों की कुल संख्या 24 है | जिनमे ऋषभदेव (आदिनाथ) प्रथम तीर्थंकर माने जाते है | ऋषभदेव का काल निर्धारित करना अत्यंत कठिन है |

भागवत पुराण में हमे ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है परन्तु यह कह पाना कठिन है कि ये ऋषभदेव जैन तीर्थंकर ही है अथवा कोई अन्य पुरुष है |

हम यह भी स्पष्ट रूप से नही कह सकते है कि आरम्भ के 22 तीर्थंकर ऐतिहासिक पुरुष थें अथवा नही | पर यह निश्चित है कि 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुष थें, जिनका समय आठवी शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है | यह भी प्रमाण मिलता है कि 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अनुयायी महावीर स्वामी के समकालीन थें | परन्तु तब तक पार्श्वनाथ के उपदेशों में दोष आ चुकें थें और महावीर स्वामी ने उनमे सुधार करके उसे नवीन बल प्रदान किया |

जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी की ऐतिहासिकता में कोई संदेह नही है | बौद्ध निकाय में महावीर स्वामी को ‘निगण्ठ नातपुत्त’ अर्थात् निर्ग्रन्थ ज्ञातृ-पुत्र’ कहा गया है, क्योकि उनका जन्म ज्ञातृ नामक क्षत्रीयकुल में हुआ था |

राग-द्वेष पर पूर्णतः विजय प्राप्त करने के कारण इन्हे महावीर, वीतराग (मुक्त पुरुष) और ‘जिन’ (जितेन्द्रिय) कहा जाता है | दिगम्बर रहने की वजह से तथा कर्मबंधन की ग्रन्थि खोल देने के कारण वें ‘निर्ग्रन्थ’ भी कहलाते है |

महावीर स्वामी का इतिहास

गौतम बुद्ध की भांति महावीर स्वामी भी राजवंश के थें और उन्ही की भांति इन्होने ने भी सर्वप्रथम अपने ही वंशवालों को उपदेश दिया था | लेकिन गौतम बुद्ध के विपरीत महावीर स्वामी अपने माता-पिता के पूरे जीवनकाल तक उन्ही के साथ रहें और उनकी मृत्यु के पश्चात् ही महावीर स्वामी ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन की आज्ञा लेकर आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश के लिए गृहत्याग किया |  

एक जनश्रुति के अनुसार महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसा पूर्व के लगभग वैशाली के समीप कुण्डग्राम में हुआ था | इनके बचपन का नाम वर्द्धमान था |

इनके पिता, जिनका नाम सिद्धार्थ था, ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रधान थें जो वज्जि संघ का एक प्रमुख सदस्य था | इनकी माता का नाम त्रिशला या विदेहदत्ता था, जो वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी |

वर्द्धमान का विवाह कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ हुआ था, जिनसे इन्हे अणोज्जा (प्रियदर्शना) नामक पुत्री प्राप्त हुई थी | अणोज्जा का विवाह जामालि के साथ हुआ था | जामालि प्रारम्भ में महावीर स्वामी का शिष्य था लेकिन बाद में वह उनसे अलग हो गया था | जामालि ने ही सर्वप्रथम जैन धर्म में भेद उत्पन्न किया था |

वर्द्धमान ने लगभग तीस वर्षों तक अपने परिवार के सुखी जीवन व्यतीत किया और उसके बाद आध्यात्मिक ज्ञान की खोज के लिए गृह त्याग कर दिया | तपस्या के आरम्भिक आवस्था में इन्होने वस्त्र धारण किया लेकिन 13 माह पश्चात् अपने सम्पूर्ण वस्त्र त्याग कर पूर्णतः नंग अवस्था में रह कर अत्यंत कठोर तपस्या व साधना का जीवन व्यतीत करने लगे ।

भ्रमण के दौरान नालन्दा में वर्द्धमान की मुलाकात मक्खलिपुत्त गोशाल नामक संन्यासी से हुई । उनसे प्रभावित होकर वह उनका शिष्य बन गया लेकिन 6 वर्ष पश्चात् वैचारिक मतभेद के कारण वर्द्धमान का साथ छोड़कर उसने ‘आजीवक’ नामक नये सम्प्रदाय की स्थापना की ।

वर्द्धमान को 12 वर्षों की अत्यंत कठोर तपस्या व साधना के बाद जृम्भिक ग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल वृक्ष के नीचे कैवल्य (ज्ञान) की प्राप्ति हुई | कैवल्य-प्राप्ति के बाद वर्द्धमान ‘केवलिन्’, ‘अर्हत्’ (योग्य), ‘जिन’ (विजेता), और ‘निर्ग्रन्थ’ (बन्धन-रहित) कहलाये | ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् राग-द्वेष पर पूर्णतः विजय प्राप्त करने के कारण वर्द्धमान को महावीर की उपाधि मिली |

महावीर स्वामी ने भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण कर लोगों को उपदेश देते हुए अपने मत का प्रचार-प्रसार किया | महावीर स्वामी को अपने कुछ अनुयायियों का विरोध भी झेलना पड़ा । उनके जामाता जामालि ने जैन धर्म में प्रथम भेद उत्पन्न किया | उसने महावीर स्वामी के कैवल्य के 14वें वर्ष में एक विद्रोह का नेतृत्व किया । इसके दो वर्ष पश्चात् ही तीसगुप्त द्वारा उनका विरोध किया गया ।

लेकिन इसके बावजूद महावीर स्वामी ख्याति में वृद्धि होती गयी और बड़ी संख्या में दूर-दराज से के जनसाधारण और राजागण उनके उपदेशों को सुनने के लिये आने लगे । 30 वर्षों तक जैन धर्म-दर्शन का प्रचार-प्रसार करने के बाद 527 ई.पू. के लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगृह के निकट पावापुरी नामक स्थान में महावीर स्वामी का देहावसान हुआ |

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम

जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर इस प्रकार है – (1) ऋषभदेव या आदिनाथ (2) अजितनाथ (3) सम्भवनाथ (4) अभिनन्दननाथ (5) सुमतिनाथ (6) पद्मप्रभनाथ (7) सुपार्श्वनाथ (8) चन्द्रप्रभ (9) पुष्पदन्त (10) शीतलनाथ (11) श्रेयांसनाथ (12) वासुपूज्य (13) विमलनाथ (14) अनन्तनाथ (15) धर्मनाथ (16) शान्तिनाथ (17) कुन्थुनाथ (13) अरहनाथ (19) मल्लिनाथ (20) मुनि सुब्रतनाथ (21) नमिनाथ (22) नेमिनाथ (23) पार्श्वनाथ और (24) महावीर स्वामी

जैन धर्म-दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ

उमास्वाति द्वारा रचित ‘तत्त्वाथार्धिगम सूत्र’ जैन दर्शन का सबसे लोकप्रिय आगम है । इस ग्रन्थ पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य लिखा है । हरिभद्र द्वारा रचित ‘षड्दर्शनसमुच्चय’, विद्यानन्द द्वारा रचित ‘जैनश्लोकवार्तिक’, मेरुतुंग द्वारा रचित ‘षड्दर्शनविचार’, मल्लिषेण द्वारा रचित ‘स्याद्वाद्मञ्जरी’, कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित ‘पञ्चास्तिकायसार’, नेमिचन्द्र द्वारा रचित ‘द्रव्यसंग्रह’, गुणभद्र द्वारा रचित ‘आत्मानुशासन’, सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित ‘न्यायावतार’, इत्यादि जैन धर्म-दर्शन के प्रमुख स्रोत ग्रन्थ हैं ।

अन्य जानकारी के लिए विद्यादूत का यह लेख देखें – वर्द्धमान महावीर स्वामी और जैन धर्म का इतिहास