चुनावी मैदान में पतियों के खिलाफ क्यों उतर रही है उनकी पत्नियाँ, ये है असली कारण

Why are wives contesting against their husbands in the election field
Why are wives contesting against their husbands in the election field

मुक्तिदूत/Muktidoot | इस बार के लोकसभा चुनाव में कुछ दिलचस्प बातें देखने को मिल रही है | एक तरफ अपने ही पति के खिलाफ पत्नियाँ चुनाव मैदान में उतर रही है तो दूसरी तरफ नामाराशि वाले प्रत्याशियों की भी होड़ लगी है | विभिन्न दलों के प्रत्याशियों द्वारा स्वयं नामांकन करने के साथ ही अपनी पत्नी से भी लोकसभा चुनाव में नामांकन कराने का ट्रेंड निकल पड़ा है |

राजनीतिक विश्लेषक इस ट्रेंड को प्रत्याशियों की चुनावी रणनीति का ही एक भाग मान रहे है | इसका कारण यह है कि अगर किसी भी कारण से प्रत्याशी का पर्चा खारिज हो जाता है तो उनके स्थान पर उनकी पत्नी चुनाव लड़ेगी और अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो पत्नी डमी कंडीडेट रहेगी | इसका एक फायदा यह भी है कि पत्नी के नाम से जुटाए गए संसाधनों को वें खुद अपने चुनाव में प्रयोग कर सकेंगे |

उत्तर प्रदेश की अकबरपुर लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी देवेंद्र सिंह ‘भोले’ के साथ ही उनकी पत्नी प्रेमशीला ने भी निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर नामांकन कराया है | वही कन्नौज लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी सुब्रत पाठक के खिलाफ उनकी पत्नी नेहा ने भी निर्दलीय नामांकन पत्र दाखिल किया है | कन्नौज से ही निर्दलीय प्रत्याशी राजेश सिंह चौहान के खिलाफ पत्नी राधा चौहान खड़ी है | उन्होंने भी निर्दलीय नामांकन कराया है |  इटावा में भी भाजपा प्रत्याशी प्रो. रामशंकर कठेरिया की अर्धांगिनी मृदुला कठेरिया ने भी अपना नामांकन कराया है | हालांकि,  कुछ कारणों से उनका नामांकन पत्र खारिज हो गया है |

नामाराशि वाले प्रत्याशी भी खूब कर रहे है खेल

लोकसभा चुनाव 2024 में राजनीतिक हथकंडेबाजी भी खूब आजमायें जा रहे है | विरोधी प्रत्याशी को हराने के लिए नये नये खेल खेले जा रहे है | उत्तर प्रदेश की कानपुर लोकसभा सीट से इंडी गठबंधन के प्रत्याशी आलोक मिश्र तथा अकबरपुर सीट से प्रत्याशी राजाराम पाल के नामाराशि आलोक मिश्र और राजाराम नामक व्यक्तियों ने निर्दलीय नामांकन करवाया है | वही कानपुर सीट से ही रमेश चंद्र अवस्थी नामक व्यक्ति ने निर्दलीय नामांकन कराया | हालांकि, कुछ कारणों से रमेश चंद्र अवस्थी का नामांकन खारिज हो गया है | राजनीतिक विश्लेषक इसे वोट काटने की रणनीति के तौर पर देख रहे है |