बदलती मान्यताएं

हमारे आसपास प्रतिदिन कुछ न कुछ घटनाएं घटित होती रहती हैं । धीरे – धीरे ये घटनाएं हमारे जीवन का एक अंग बन जाती हैं ।  ना चाहते हुए भी ये घटनाएं हमसे चिपक जाती हैं । हमें पता भी नहीं चलता और हम इनके आदी हो जाते हैं । यही घटनाएं आगे चलकर मान्यताओं का रूप ले लेती हैं। मान्यताओं का ना तो कोई वैज्ञानिक आधार होता है और न ही सर्वकालिक, सर्वदेशिक और सर्वजनीन स्वीकृति होती है । मान्यताओं का तालुक  केवल व्यक्ति, परिवार व समुदाय विशेष के निजी जीवन तक ही सीमित रहता है।

        आज समाज में बहुत सी मान्यताएं प्रचलित हैं । ये मान्यताएं बहुत पुराने समय से चली आ रही हैं।  कुछ मान्यताएं कुछ समय बाद खंडित हो जाती हैं और उनके स्थान पर दूसरी मान्यताएं आ जाती हैं । मान्यताओं के बदलाव का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। मान्यताएं हमारे दिमाग को प्रभावित और नियंत्रित करती हैं । प्रचलित मान्यताएं हमें डरने पर भी विवश करती हैं । डर पैदा कर प्रचलित मान्यताएं और प्रबल हो जाती हैं। यही प्रचलित मान्यताएं पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती हैं।  वर्तमान संदर्भ में  इन प्रचलित मान्यताओं पर एक  विमर्श की जरूरत है।

          एक समय था कि जब राह चलते किसी नेवला या बिल्ली जैसे छोटे जीवों के रास्ता काट देने से उसे अपशगुन या अशुभ माना जाता था । उसके विशेष निवारण या शंका समाधान  के लिए थोड़ी देर रुका जाता था।  रुकने के थोड़ी देर बाद ही फिर चला जाता था।  क्या कभी हमने इस पर तार्किक दृष्टि से विचार किया ? क्या कभी इन प्रचलित मान्यताओं का विश्लेषण करके सत्य का अन्वेषण किया ? उत्तर होगा , शायद नही ।  विश्लेषण और तार्किक परीक्षण के उपरांत यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रारंभ में जब मानव आदिम अवस्था या पिछड़ी अवस्था में जी रहा था, तब आजके जैसे आवागमन के सुगम मार्गों का विकास नही हुआ था । लोग पगडंडी आदि के सहारे पैदल चला करते थे | आसपास के आवागमन के रास्तों में घने पेड़- पौधोंवाले वृक्ष  व झाड़ियां रहती थीं । इन्हीं झाड़-  झंखार वाले रास्तों से लोगों को गुजरना पड़ता था।  ऐसा अनुमान है कि इन झाड़ झंखार वाले रास्तों से जंगली और हिंसक जानवर भी गुजरते थे । उनके गुजरने से यह अंदेशा बना रहता था कि कहीं उनके पीछे कोई हिंसक जानवर जैसे – शेर, बाघ, भालू या चीता तो नही आ रहा है । इसलिए थोड़े समय रुक कर इंतजार कर लें, फिर जब इत्मीनान हो जाए तो रास्ते पर दोबारा चलना शुरू करें ।

         इसी तरह एक दूसरा अनुमान ये है कि जब इन जंगली व झाड़ियों से युक्त रास्तों से बिल्ली या नेवला जैसे छोटे जंगली जीव गुजरते थे, तो यह संशय बना रहता था कि कहीं कोई बड़ा हिंसक जंगली जानवर अमुक बिल्ली या नेवला के शिकार का पीछा तो नही किया है। इसलिए रुक जाओ और जब यकीन हो जाए कि पीछा करने वाला हिंसक जानवर उस बिल्ली या नेवला का पीछा करते हुए आगे बढ़ गया है । दूसरा कोई हिंसक जानवर अब पीछे नही आ रहा है । रास्ता साफ हो गया है। अब चला जा सकता है।  अब कहीं कोई खतरा नही है। तब लोग आगे कदम बढ़ाते थे । लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल बदल गई हैं । समय परिवर्तित हो गया है । जंगली रास्ते नही रह गए हैं । झाड़ – झंखार वाले रास्तों पर अच्छी-अच्छी सड़कें बन गई हैं । जो बिल्ली पहले जंगली हुआ करती थी और जंगलों में रहती थी, आज वही बिल्ली पालतू हो गई है । लोगों के घरों की शोभा बढ़ा रही है । अब न तो जंगल रहे और न बिल्ली जंगली ही रही । लेकिन हमारे दिमाग में वही प्रचलित मान्यताएं बनी हुई है कि बिल्ली के रास्ता काटने पर हमें आगे कदम नही बढ़ाना चाहिए । रुक जाना चाहिए।  विशेष मिटा लेना चाहिए । तब चलना चाहिए, पूर्वाग्रह के रूप में हावी हैं । स्थाई रूप से स्थापित हो चुकी हैं। आज बिल्ली व नेवला जैसे छोटे जीवो के रास्ता काटने पर डरने की जरूरत नही है। आज वह हमसे डरकर भागते हैं । दुर्घटना होने पर उनकी ही मौत देखने को मिलती है । लोगों को शायद ही मामूली चोटें आती हों।

         वर्तमान देश व प्रदेश की सरकारों के प्रोत्साहन के चलते हमारे आसपास आवारा गाय और बैल जैसे आवारा जानवरों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं।  नगरों में चौराहों- तिराहों के साथ ही साथ सड़क मार्गों पर भी इनकी संख्या कई गुना बढ़ गई है । ये आवारा पशु आदमी से कहीं अधिक बलवान और ताकतवर हैं।  इन्हें लाठी-डंडे जैसे किसी हथियार ढूंढने की जरूरत नही है। इनका शरीर , सिर और सींघ ही किसी घातक हथियार से कम नही है । एक बैल (सांड) 10 पैदल व्यक्तियों, दो मोटरसाइकिल सवारों को नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है । यहां तक कि ये चरपहिया वाहन को भी अनियंत्रित करने की क्षमता रखते हैं । लोग सड़कों पर गुजर रहे गाय, बैल व बछड़ों के झुंड से निःसंकोच गुजरते हैं। रास्ता ना मिलने पर भी इन आवारा पशुओं को डांट फटकार कर रास्ता बनाकर गुजरते हैं । आए दिन गाय, बैल व बछड़ों से घटित सड़क मार्ग दुर्घटनाओं से तमाम लोगों की मौतें भी हो चुकी हैं। लोग घायल हो चुके हैं और हो भी रहे हैं । वाहन क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। लेकिन हम हैं कि इन प्रचलित मान्यताओं में फंसे हैं कि बिल्ली या नेवला जैसे जीव के रास्ता काटने पर ही रुकना चाहिए रास्ता नही पार करना चाहिए।  जबकि अब ये प्रचलित मान्यताएं बदल चुकी हैं।  सड़कों पर , चौराहों-तिराहों पर आवारा पशुओं (गाय, बैल, बछड़ों ) के झुंड से बचने की जरूरत है । उनके रास्ता काटने पर हमें रुक जाना चाहिए । जब वे रास्ते से गुजर जाएं तो हमें रास्ता पार करना चाहिए । इन्हे हथियार के रूप में लाठी- डंडा ढूंढने की जरूरत नही है। इनका शरीर, सिर व सींघ ही इनके हथियार हैं। इनके शरीर घुमाने व सिर झमकाने से ही हमारा काम तमाम हो सकता है । इनको सरकारी सुरक्षा भी प्राप्त है।। इनसे उलझने की जरूरत नही है । गोवंश (सांड ) रास्ता काटे तो हमें रुक जाना चाहिए । इसलिए पूर्व प्रचलित मान्यताओं को बदलने की जरूरत है।

           ठीक इसी प्रकार दूसरी मान्यता छींक की है। छींक आने पर हमें रुक जाना चाहिए और उसका विशेष मिट जाने के बाद ही जाना चाहिए। दरअसल बात यह है कि जब कभी हम किसी विशेष काम से घर से बाहर निकलने वाले होते हैं तो पता चलता है कि किसी ने छींक दिया है तो हम उसे अपशगुन या अशुभ मानकर रुक जाते हैं । उसका विशेष (टोटका) मनाने लगते हैं । कहीं पड़ोसी के यहां से यह छींक आई है तो पूछो नही।  मूड और खराब हो जाता है । उस पर भी यदि पड़ोसी से खुन्नस है या नही जमती है या वह हमसे दुश्मनी रखता है तो फिर क्या पूछना।  सारा का सारा गुस्सा उसी पर फूटने लगता है । कार्यक्रम निरस्त करने की प्रबल संभावना भी रहती  है । तमाम लोग जाने का कार्यक्रम निरस्त भी कर देते हैं ।क्या यह पूर्वाग्रह पूर्ण मान्यता ठीक है ? क्या क्या हमें इसको अपशगुन मानना चाहिए ?रुकना चाहिए ?  विशेष टोटका करना चाहिए ?शायद उत्तर होगा नही।  लेकिन वर्तमान में ये मान्यतायें लोगों के दिलों दिमाग में घर कर गई है ।

            तार्किक विश्लेषण और परीक्षण के बाद पता चलता है कि ये मान्यतायें भी बिना किसी  सिर और  पैर के ही हैं। इसका जो आधार है , वह बिल्कुल अलग है । उसका हकीकत से कोई लेना देना नही है । सत्यता तो ये है कि छींक एक स्वाभाविक शारीरिक क्रिया है। इसका अपशगुन जैसी मान्यताओं से कोई लेना-देना नही है । वास्तव में जब हमारी नाक में कोई अवरोध या व्यवधान उत्पन्न होता है तो हमें सांस लेने में और सांस निकालने में दिक्कत महसूस होती है और छींक आ जाती है। इस प्रकार जब नाक में कुछ फंस जाता है या नाक में कोई रुकावट पैदा हो जाती है , तो छींक आ जाती है। छींक आने का मतलब हुआ कि नाक में कोई दिक्कत या परेशानी पैदा हो रही है। यह दिक्कत हमें सचेत कर रही है कि छींक वाले व्यक्ति के शरीर में कोई बीमारी प्रवेश कर रही है या उसके शरीर में कोई विसंगति पैदा हो रही है । छींक शरीर में पैदा होने वाली विसंगति को इंगित करने का एक संदेश वाहक है। इस सूचना संदेश के आधार पर हमें चाहिए कि यदि घर परिवार का कोई सदस्य जिसे छींक  आई है। उसे कहीं कोई बीमारी तो नही घेर रही है ।उसे सर्दी जुकाम की शिकायत तो नही है। परिवारीजनों को अगर सर्दी जुकाम या अन्य शारीरिक विसंगति जैसी कोई समस्या दिखाई पड़े तो हमें तत्काल रुक जाना चाहिए । उसका प्राथमिक उपचार करना चाहिए । सामान्य स्थिति होने का इंतजार करना चाहिए । जब सामान्य स्थिति दिख जाए । आराम दिखाई पड़ने लगे तो कहीं प्रस्थान करना चाहिए ।लेकिन पता चलता है कि जब पड़ोसी जो हमसे अपनी दुश्मनी रखता है , के यहां से भी छींक आ रही है तो भी रुक जाते हैं । तो क्या तब भी  हमें रुकने की जरूरत है ?  इस प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रसित प्रचलित मान्यताओं के खंडन  की आवश्यकता है।

        हमें घर से निकलते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आने वाली छींक हमारे घर परिवार की है, कि हमारे पास पड़ोस की है । अगर घर परिवार की है तो प्राथमिक उपचार हेतु रुकना चाहिए । पास पड़ोस की है तो रुकने की ज़रूरत नही है ।

           वर्तमान समय बदल गया है । प्रचलित मान्यताएं परिवर्तित हो रही हैं । हमें उस समय रुकना चाहिए , जब किसी का फोन आ रहा हो।  यदि उस फोन की काल अत्यंत महत्वपूर्ण है , तो हमें रुककर उसे रिसीव कर लेना चाहिए । यदि रुकने लायक मामला बनता है ,तो रुकना चाहिए । अन्यथा  प्रस्थान कर  देना चाहिए।  लेकिन हम करते  क्या हैं कि फोन रुककर  रिसीव करने के बजाए कान से मोबाइल लगाए – लगाए बात करते हुए चले जाते हैं।  मोबाइल से बातें करते-करते वाहन चलाते न जाने कितनी दर्दनाक दुर्घटनाएं  होती रहती हैं । इसका पता हमें प्रतिदिन के समाचार पत्रों में छपी खबरों से चल सकता है । इस प्रकार फोन आने पर रुकना है । फोन पर बात करते हुए  राह चलते भारी वाहनों के ओवरटेक से बचना है । खुद के जबरदस्ती ओवरटेक करने के जोखिम भरे प्रयासों से बचना है । अक्सर देखने में आता है कि रेलगाडी आने जाने के समय रेलवे फाटक बंद रहता है । हम रेलगाड़ी के गुजर जाने का इंतजार किए बगैर अपने वाहन को दाएं – बाएं कर , झुकाकर व घुमाकर निकालने की कोशिश करते हैं । वहां हमारा धैर्य जवाब दे जाता है । वहां हमें रुकने की जरूरत होती है । लेकिन हम नहीं रुकते हैं , जबकि उस समय रेल के रूप में मौत हमारे सामने से गुजर रही  होती है । आज अप्रासंगिक प्रचलित मान्यताओं के स्थान पर नवीन व प्रासंगिक मान्यताओं को जीवन में उतारने की जरूरत है ।

       इसी तरह ना जाने कितनी अप्रासंगिक मान्यताएं आज भी हमारे समाज में प्रचलित हैं । उन्हें बदलने की जरूरत है । खाली बाल्टी लिए व्यक्ति का सामने से गुजरना , किसी विधवा महिला का रास्ते से निकलना , किसी आंख से विकलांग व्यक्ति (काने) का मिलना,  तेली जैसी अति पिछड़ी जाति के व्यक्ति  का सामने से गुजरना आदि पूर्वाग्रह से ग्रसित आप्रासंगिक प्रचलित मान्यताएं देश और समाज के विकास के मार्ग में बाधक सिद्ध हो रही हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में  इन अप्रासंगिक प्रचलित मान्यताओं का कोई औचित्य नही रह गया है |

आभार : सुनील दत्त , प्रवक्ता (भूगोल ) इंटर कॉलेज गौरा रायबरेली, अध्यक्ष – भारतीय बौद्ध महासभा उत्तर प्रदेश ( पंजीकृत ) जिला इकाई – रायबरेली |

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